कमांडर सतीश कुमार भल्ला इस बार अपने 87वें जन्मदिन पर बहुत खुश थे। क्योंकि इस बार वह अकेले नहीं थे। उनके साथ उनकी मुंहबोली बेटी, यानी ‘समर्थ’ की केयर काउंसिलर सीमा शारदा उनके साथ थी। उसने पूरे भारतीय तौर-तरीकों से दीप जलाकर, पुष्पहार पहनाकर व मिठाई खिलाकर उनका जन्मदिन मनाया। कुछ दिनों पहले जब उन्हें कोरोना हो गया था, तो भी उन्हें इस मुंहबोली बेटी से बहुत मदद मिली। कमांडर भल्ला भारत के उन तमाम बुजुर्गों में से एक हैं, जिनके बच्चे विदेश में रह रहे हैं।
इन बच्चों को अपने बूढ़े मां-बाप की फिक्र तो है, लेकिन व्यावसायिक मजबूरियों के कारण वे साथ रहकर उनकी सेवा नहीं कर सकते। कई कारणों से मां-बाप भी उनके साथ नहीं जा पाते। ऐसे बुजुर्गों व दूर रह रहे उनके बच्चों के बीच कड़ी का काम कर रहा है एक संगठन ‘समर्थ’।
‘समर्थ’ के सीमा शारदा जैसे कई केयर काउंसिलर देश के 40 शहरों में सैकड़ों बुजुर्गों की देखभाल बिल्कुल उनके बच्चों की तरह कर रहे हैं। खासतौर से कोरोना काल में, जब रोज मिल रही दहलाने वाली खबरों के बीच अकेले रह रहे बुजुर्गों का आत्मविश्वास टूटने लगता है। उनका घर से बाहर निकलना मुश्किल है। रोजमर्रा की जरूरत की चीजें भी मिल नहीं पा रही हैं। न जाने कब डॉक्टर, एंबुलेंस या अस्पताल की जरूरत पड़ जाए। ऐसी स्थिति में ‘समर्थ’ के केयर काउंसिलर बिल्कुल उनके बच्चों की तरह संबल बनकर उनके साथ खड़े दिखाई देते हैं।

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‘समर्थ’ के प्रबंध निदेशक आशीष गुप्ता कहते हैं कि यह न तो कोई स्वयंसेवी संस्था है, न ही कोई व्यावसायिक कंपनी। यह बहुत मामूली शुल्क पर दूर रह रहे बच्चों के माता-पिता की देखरेख का काम करने वाली एक संस्था है। उनके अनुसार न सिर्फ विदेश में, बल्कि भारत में भी किसी अन्य शहर में रह रहे बच्चे चाहते हैं कि दूसरे शहर में रह रहे उनके माता-पिता की देखरेख अच्छे तरीके से हो सके। क्योंकि वे स्वयं उनके पास रहकर उनकी सेवा करने में असमर्थ होते हैं। इस जरूरत को समझते हुए ही 2016 में समर्थ की स्थापना की गई। कोरोना महामारी शुरू होने के बाद तो ‘समर्थ’ की प्रासंगिकता और बढ़ गई। क्योंकि इस बीमारी ने अकेले रह रहे बुजुर्गों के मन में असुरक्षा का भाव और मजबूत कर दिया है। ऐसे में ‘समर्थ’ के केयर काउंसिलर न सिर्फ बुजुर्गों के लगातार संपर्क में रहते हैं, बल्कि जरूरत पड़ने पर उनके घर जाकर उनकी जरूरतों का भी ख्याल रखते हैं। वे लगातार इन बुजुर्गों के विदेश में रह रहे बच्चों के भी संपर्क में रहते हैं। इससे उनके बच्चों को भी संतुष्टि मिलती है कि उनके माता-पिता की देखरेख के लिए कोई भरोसेमंद व्यक्ति मौजूद है।
आशीष गुप्ता के अनुसार, समर्थ अपने केयर काउंसिलर का चयन भी प्रोफेशनल आधार पर नहीं, बल्कि भावनात्मक आधार पर करता है। इस काम के लिए ऐसे लोग ही चुने जाते हैं, जो अपने किसी सफल पूर्णकालिक कैरियर से किसी कारणवश अलग हो चुके हों, और इस कार्य से वे सिर्फ पैसे के लिए न जुड़ रहे हों। यह भी जरूरी है कि वे अपने माता-पिता की सेवा करते रहे हों और बुजुर्गों के प्रति उनका लगाव हो। जैसे मुंबई की सीमा शारदा कई वर्ष विदेश में रहकर अध्यापन से जुड़ी रहीं, और अब मुंबई में अपना छोटा स्कूल चलाने के साथ-साथ अपने घर के निकट रह रहे अपने माता-पिता की भी देखरेख करती हैं, साथ ही समर्थ के साथ जुड़कर कुछ और बुजुर्गों का भी सहारा बन रही हैं। ‘समर्थ’ के केयर काउंसिलर्स की टीम में 95 फीसद महिलाएं ही होती हैं। जोकि ‘समर्थ’ से जुड़ने वाले बुजुर्गों की एक बेटी बनकर सेवा कर सकें।